सिग्मंड फ्रायड का मनोलैंगिक विकास आपके बच्चे के लिए क्या मायने रखता है

मनोलैंगिक विकास पर फ्रायड के विचार और आधुनिक शोध

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फ्रायड के अनुसार मानव का जीवनपर्यन्त व्यवहार अपनी आधारभूत प्रेरणा की सन्तुष्टि की आवश्यकता द्वारा अभिप्रेरित होता है। इन्होंने लिबिडो या लैंगिकता का विचार दिया था। उन्होंने कहा था यह केवल जननांगीय उद्धीप्तिकरण ही नहीं है, अपितु यह शरीर के विभिन्न भागों द्वारा अलग अलग स्टेज में पायी जाती है। जिसे उत्तेजक क्षेत्र कहते है। बालक के मनोलैंगिक विकास की अवस्थाएँ इस जीवन ऊर्जा (Libido) के तुष्टिकरण के प्रकार पर निर्भर करती है। 

फ्रायड ने मनोलैंगिक अवस्थाओं को  पाँच अवस्थाओं में वर्गीकृत किया। 


मुखीय अवस्था (Oral stage)
बालक के विकास की प्रथम अवस्था मुखीय अवस्था है जो जन्म से 18 माह तक की अवधि तक होती है। बालक शरीर के मुख भाग द्वारा ही खुशी प्राप्त करता है, इसलिए मुखीय क्रियाएं जिसमें होंठ, जीभ और सहायक अंग ही रूचि के मुख्य भाग होते हैं। चुसना, निगलना, चबाना, काटना उसे खुशी देता है और उसकी जीवन ऊर्जा को संतुष्ट करता है। फॉयड के अनुसार इस अवस्था में अत्यधिक या अपर्याप्त मुखीय उद्धीप्तिकरण आगे चलकर उसे मुखीय उदासीन व्यक्तित्व की तरफ ले जा सकता है। जेसे नाखूनों को चबाना, स्मोकिंग करना और किसी चीज को मुँह में चबाते रहना। फ्रायड के अनुसार बालक के पाँच मुखीय प्रकार कार्य करते हैं जो बाद की व्यक्तित्व विशेषताओं के पूर्वप्रकार हैं जैसे जो बालक भोजन ग्रहण करने की क्रिया में आनन्दित होता है आगे चलकर वह अत्यधिक खाने वाला या अधिक ज्ञान या शक्ति प्राप्त करने वाले प्रौढ व्यक्ति के रूप में विकसित होता है। 

गुदीय अवस्था (Anal Stage)
बालक के विकास की यह अवस्था 18 महीने से 3 वर्ष तक की होती है जिसमें जीवन ऊर्जा मुख से गुदा क्षेत्र में स्थानान्तरित हो जाती है। बालक को खुशी का अनुभव मुख्य रूप से त्यागने की क्रिया या उससे सम्बन्धित कियाओं से होता है। मलत्याग की क्रिया उसे तनाव से मुक्ति और खुशी देती है। यदि बालक के शौच सम्बन्धी प्रशिक्षण को मात-पिता बहुत कम  महत्व देते हैं तो यह बालक के लिए चिंता का कारण बन जाता है यह चिंता अन्य परिस्थितियों पर भी लागू हो जाती है। इससे बालक अस्तव्यस्त, गंदा और गैरजिम्मेदार हो सकता है। इसके विपरीत दूसरी तरफ अगर  पेरेंट्स शौच सम्बन्धी प्रशिक्षण को बहुत अधिक महत्व देते हैं वह स्वच्छ और किफायती प्रौढ़ के रूप में विकसित हो सकता है। इसलिए दोनों  परिस्थितियों में संतुलन बहुत ज़रूरी है। 

उत्तर लैंगिक अवस्था (Phallic stage)
यह अवस्था तीन से पाँच वर्ष तक की होती है  जब बच्चा अपना देखभाल कर सकता है, जैसे शौच सम्बन्धी क्रिया 
जिसमें बालक का सन्तुष्टिकरण जननांगों पर केन्द्रित हो जाता है। लैंगिक क्षेत्र का उद्धीप्तिकरण तनाव पैदा करने और तनाव मुक्त होने का केन्द्र होता है। बालक की इससे सम्बन्धित व्यवहार क्रियाएं देखने में आती है। बालक अपने पिता और बालिका अपनी माता से दूरी बना लेते हैं। यह बालकों में बालिकाओं की अपेक्षा अधिक देखने को मिलता है। फ्रायड के अनुसार बालक अपनी माता तथा बालिका अपने पिता से प्रेम करती है और उसे दूसरे से बांटना नहीं चाहते। बालक विपरीत लिंगीय अभिभावक से जुडाव और समान लिंगीय अभिभावक से विद्वेष रखता है। फ्रायड ने इसे ओडिपस ग्रन्थि (Oedipus complex) का नाम दिया।  
इसी प्रकार बालिका का अपनी माता से दूरी और पिता से प्रेम इलेक्ट्रा ग्रंथि (Electra complex) कहलाता है जिसमें वह अपनी माता से विद्वेष रखती है। फ्रायड इसे लिंगीय संघर्ष, अपराधबोध और चिंता के रूप में देखते हैं। वास्तव में सभी समाजों और संस्कृतियों में ये ग्रन्थियों देखने को नहीं मिलती। इन ग्रन्थियों का समबन्ध एक प्रकार की विद्वेषता का प्रदर्शन है जो स्वामित्वभाव का विरोध करती है।  

सुप्तावस्था (Latency Period)
बालक की यह अवस्था 5 वर्ष से यौवनारंभ तक होती है, जिसमे लैंगिकता कम महत्वपूर्ण या आनुपातिक रूप में निष्क्रिय हो जाती है। यह अवस्था सामान्यतया शान्त होती है और शरीर के किसी भी भाग में उत्तेजना नहीं होती है। इस काल में जीवन ऊर्जा अलैंगिक क्रियाओं जैसे खेल और साथियों से सम्बन्ध के रूप में कियान्वित होती है। बालक अपने विचारों को विद्यालयी कियाओं और अपने समान साथियों के साथ खेलने में लगाता है। इस काल में बालक संज्ञानात्मक कौशलों और सांस्कृतिक मूल्यों को ग्रहण करता हुआ अपना क्षेत्र विस्तृत करता है।

जननांगिय अवस्था (Genital stage)
यह किशोरावस्था काल है जिसमें लैगिक ऊर्जा पूरे बल के साथ दुबारा प्रकट होती है। ऐसा बालक के शरीर के कार्यो में परिवर्तनों के फलस्वरूप होता है। इस अवस्था में यह जीवन ऊर्जा पूर्व की भांति सन्तुष्टिकरण चाहती है पर यह विपरीत लिंगीय व्यक्ति की ओर निर्देशित हो जाती है। इस काल में व्यक्ति का प्रेम अधिक परोपकारी हो जाता है और पूर्व अवस्थाओं की भांति केवल स्व-सन्तुष्टि या स्वयं की खुशी तक ही सीमित नहीं होता ।

फ्रायड के अनुसार यद्यपि पूरे जीवनकाल में कुछ आन्तरिक संघर्ष अवश्यंभावी होते हैं पर अधिकतर व्यक्तियों में जननांगीय अवस्था के अन्त तक स्थिर अवस्था प्राप्त हो जाती है। व्यक्तित्व विकास की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि प्रेम और कार्य के मध्य एक सन्तुलन स्थापित करना है व्यक्ति का व्यक्तित्व तीन मुख्य घटकों इदम (id), अहम (ego) और परम अहम् (superego) से बनता है। प्रत्येक घटक के अपने कार्य, सिद्धान्त और गतिशीलता होती है और ये एक दुसरे से सम्बन्धित होते हैं। व्यक्ति का व्यवहार इन तीनों घटको की अतःक्रिया का परिणाम होता है।


ईद (Id) अहंकार (Ego) सुपरइगो (Superego)
यह मानव व्यक्तित्व का अचेतन हिस्सा है जो बुनियादी इच्छाओं को पूरा करने के लिए काम करता है। यह वास्तविकता सिद्धांत पर आधारित है। यह नियमों और नैतिकताओं की तलाश करता है और अचेतन मन में रहता है। यह व्यक्तित्व का नैतिक हिस्सा है जिसे विवेक के रूप में भी जाना जाता है। यह आनंद के बजाय पूर्णता का प्रतीक है।
यह आनंद सिद्धांत पर आधारित है जो असामाजिक इच्छाओं की संतुष्टि की आकांक्षा रखता है अहंकार हमेशा इच्छाओं को स्थगित करता है और तनाव को दूर करता है जब तक कि उसे वांछित वस्तु नहीं मिल जाती। यह ईद और अहंकार के बीच संतुलन के रूप में कार्य करता है, यह उस समाधान को खोजने की कोशिश करता है जो आईडी और अहंकार दोनों को चोट नहीं पहुंचाता है।
यह मूल व्यक्तित्व घटक है जो जन्म से मौजूद है और यौन इच्छाओं को संतुष्ट करने का प्रयास करता है यह व्यक्तित्व का वह पहलू है जो तार्किक, तर्कसंगत और उचित होने और वास्तविकता की दुनिया का सामना करने का प्रयास करता है। सुपरइगो माता-पिता द्वारा अपनाए गए पुरस्कार और दंड के प्रति प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप बच्चे के दिमाग में विकसित होता है।

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