क्रायोजेनिक इंजन एक बेहतरीन रॉकेट इंजन तकनीक

क्रायोजेनिक इंजन: आधुनिक अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का महत्त्वपूर्ण घटक 

क्रायोजेनिक इंजन सबसे कीमती रॉकेट इंजन टेक्नॉलजी है। इसकी डिजाइनिंग जटिलता की वजह से कुछ ही देश इस इंजन को बना पाए हैं। 

एक साधारण रॉकेट खुद को आसमान में न्यूटन के तीसरे नियम का इस्तेमाल करके आगे बढ़ता है । जब रॉकेट काफी ज्यादा स्पीड में बहुत ज्यादा मात्रा में गैस को छोड़ता है, तो वह उल्टी दिशा में उतनी ही मात्रा में मोमेंटम प्राप्त करता है। जाहिर है, इतनी अधिक मात्रा में गैस को तेज़ गति से बाहर निकालने के लिए, रॉकेट इंजन को बहुत अधिक दहनशील ईंधन जलाना पड़ता है।

तरल ईंधन आधारित रॉकेट इंजन अंतरिक्ष प्रणोदन (Propulsion) के लिए सबसे बहुमुखी इंजन हैं। इन रॉकेटों के साथ, ईंधन इंजेक्शन को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करना संभव है। इसे ही क्रायोजेनिक इंजन कहते है। 

1903 में, रूसी शिक्षक कोंस्टेंटिन त्सियोलकोवस्की ने तरल ईंधन वाले रॉकेटों पर एक पेपर लिखा था। 1926 में, अमेरिकी वैज्ञानिक रॉबर्ट गोडार्ड ने पहला तरल ईंधन वाला रॉकेट उड़ाया। हरमन ऑबर्ट के नेतृत्व में जर्मन वैज्ञानिकों ने तरल ईंधन वाले रॉकेट विकसित किए। जर्मनी ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अन्य देशों पर बम गिराने के लिए रॉकेट का इस्तेमाल किया।


प्रोपोलेंट क्या है?

एक रॉकेट को अपने साथ ऑक्सीजन भी ले जाना पड़ता है, ईंधन और ऑक्सीडाइज़र को प्रोपोलेंट कहा जाता है।

क्रायोजेनिक इंजन कैसे डिज़ाइन किया जाता है?

रॉकेट को ज्यादातर हाई specific impluse फ्यूल की जरूरत होती है। Specific Impluse फ्यूल उसे कहते हैं जो प्रति यूनिट प्रोपोलेंट को जलाने में रॉकेट को मिलता है। तो रॉकेट को साफ़ तौर पर हाई specfic impluse की जरूरत होती है। मोमेंटम के बदलाव की दर  के कारण रॉकेट को थर्स्ट मिलता है। थर्स्ट यान को आगे बढ़ने में मदद करता है। 

रॉकेट के निकास (Gases ejected from an engine as a waste product) की गति जितनी अधिक होगी, उसका मोमेंटम लॉस भी उतना ही अधिक होगा। क्योंकि  धीरे धीरे रॉकेट का द्रव्यमान (जिसमें शेष ईंधन का द्रव्यमान भी शामिल है) लगातार घटता जाता है। द्रव्यमान और वेग के बदलने से मोमेंटम लॉस होता है। यह रॉकेट के स्पेस में जाने से पहले तक होता है। स्पेस में कोई बल ना लगने के कारण मोमेंटम में कोई बदलाव या लॉस नहीं होता है। इसलिए फ्यूल की calorific value बहुत जरूरी होती है। 

रॉकेट में हाई calorific वैल्यू वाली गैस जिसका आणविक भार (molecular weight) सबसे कम हो और specific impluse ज्यादा हो,का ही इस्तेमाल करते हैं। 

इस मापदंड पर सबसे अच्छा विकल्प हाइड्रोजन है क्योंकि हाइड्रोजन का आणविक भार बहुत कम है और कैलोरी मान सबसे अधिक है। इसके अलावा, हाइड्रोजन हमारे वातावरण को भी नुकसान नहीं पहुँचाती है। 

लेकिन हाइड्रोजन की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हाइड्रोजन कमरे के तापमान पर गैस के रूप में होती है, इसलिए रॉकेट में गैस रूप में हाइड्रोजन ले जाने से रॉकेट बहुत भारी हो जाएगा। इसलिए रॉकेट का द्रव्यमान कम करने का एकमात्र तरीका हाइड्रोजन को द्रवित करना होता है। और यहीं पर क्रायोजेनिक काम करता है, हाइड्रोजन गैस को तरल गैस में परिवर्तित करता है। जब हाइड्रोजन द्रवित हो जाता है, तो टैंक का आकार छोटा हो जाता है। तरल हाइड्रोजन बनाने के लिए, इसे कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। हाइड्रोजन गैस को - 253°c( डिग्री सेल्सियस) पर द्रवित हो जाती है। ऑक्सीजन को भी इसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। 

हाल ही में भारत की अंतरिक्ष एजेंसी 'इसरो' ने चंद्रयान-3 मिशन के लिये CE-20 क्रायोजेनिक इंजन का सफल परीक्षण किया। 1987 के बाद भारत ने क्रायोजेनिक इंजन पर काम करना शुरू किया था। 

 



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