डायनमो का अविष्कार Part 2

..... लेकिन एक और इतालवी प्रोफेसर ऐलेसैंड्रों वोल्टा इस सिद्धांत से सहमत नहीं था । उसका ख्याल था कि जंतु में कोई बिजली नहीं थी , बल्कि बिजली तब पैदा होती थी जबकि दो असमान धातुएँ माँस की नमी को स्पर्श करती थीं । उसने जिंक और तांबे की कई डिस्के लीं और उनके हर जोड़े के बीच में नमक के घोल से गीला किया हुआ एक - एक गत्ता रख दिया । इस प्रकार एक पुज बन गया था जिसमें धातुओं को ऐसे सिलसिले से रखा गया कि एक सिरे पर जिंक था और दूसरे सिरे पर तांबा । जब दोनों सिरों को जोड़ा जाता था तब बिजली पैदा होती थी । इस व्यवस्था को ' वाल्टेइक पाइल ' अथवा ' वाल्टेइक सेल का नाम दिया गया । सबसे पहली बिजली की बैटरी का निर्माण इसी तरह हुआ । उसके बाद एक के बाद एक कई प्रकार के सेल बनाये गये । एक स दूसरा अधिक सुधरा हुआ .. था । आज भी हम ऐसे सेलों को तब इस्तेमाल करते हैं जब हमें धीमी धाराओं की जरूरत होती है जैसे कि टेलीफोन में । इस प्रकार के सेलों को प्राथमिक सेल कहते हैं । फिर इनके बाद द्वितीयक सेल अथवा ' ऐकुमुलेटर ' ( संचायक ) होते हैं जो बिजली को जमा कर लेते हैं और उसे एक धारा के रूप में छोड़ रहते हैं । ये आमतौर से मोटरकारों और वसों आदि में इस्तेमाल होते हैं । बैटरियों से प्राप्त होनेवाली विद्युत धारा बहुत कमजोर थी और उत्पादन की दृष्टि से बहुत महंगी । इसलिए यह आवश्यक हो गया कि बिजली को सस्ती लागत से और बहुतायत से बनाने का कोई तरीका ढूंढ़ा जाये । खोज चलती रही । अगली महत्वपूर्ण खोज 1820 में हुई । खोजकर्ता था डेनमार्क का रहने वाला हँस ईस्टैंड ।

 एक दिन वह अपने विद्यार्थियों को विद्युत धारा से कुछ प्रयोग करके दिखा रहा था । संयोग की बात थी कि जहाँ वह काम कर रहा था उसी मेज पर एक कुतुबनुमा ( कम्पास ) रखा हुआ था । ईस्टैंड ने देखा कि कम्पास के ऊपर से ले जाये गये तार में से जब बिजली गुजरती थी तो कुतुबनुमे की सुई हिल जाती थी । जब बिजली की धारा की दिशा उलट दी जाती थी तब सुई की दिशा भी उलट जाती थी । जब बिजली की धारा बंद कर दी जाती थी तब सुई चलती ही नहीं थी । ईस्टैंड को बड़ा आश्चर्य हुआ । इस तरह तो केवल कोई चुम्बक ही कुतुबनुम की सुई को हिला सकता था । उसने इस प्रयोग को बार - बार दोहराया लेकिन हर बार एक ही नतीजा निकला । उसे यह मानना पड़ा कि वह तार जिसमें से होकर विजली गुजर रही थी , एक चुम्बक की तरह काम कर रहा था । इससे सिद्ध हो गया कि बिजली और चुम्बकत्व में संबंध है । 

इस खोज ने विज्ञान की दुनिया में तहलका मचा दिया । इस खोज के बाद जो आविष्कार सामने आये उन्हीं में से एक था विद्युत चुम्बक । जब कोई लंबा तार लोहे की एक छड़ के चारों ओर उससे बिना छुआये लपेटा जाता था , और जब इस तार में से विद्युत धारा गुजारी जाती थी तो छड़ - चुम्बक बन जाती थी । यदि ऐसा करने में नर्म लोहा इस्तेमाल किया जाता तो उस छड़ का चुम्बकत्व बिजली बंद कर देते ही समाप्त हो जाता । इसे विद्युत् चुम्बक कहा गया । 1821 में एक अमरीकी वैज्ञानिक जोसेफ हेनरी ने सिर्फ एक बैटरी से विद्युत धारा इस्तेमाल करके एक ऐसा विद्युत् चुम्बक बनाया जो एक टन भारी लोहे को उठा सकता था । 

Michael Faraday

Image source: Internet 

उसके बाद माइकल फॅरेडे द्वारा किया गया डायनामो का आविष्कार सामने आया । फॅरेडे एक गरीब लोहार का पुत्र था जो एक महान् वैज्ञानिक तथा रायल सोसाइटी का अध्यक्ष बना । फैरेडे 13 साल की उम्र में ही एक जिल्दसाज की दूकान में नौकरी करने लगा । लेकिन उसकी रुचि उन किताबों के ऊपर जिल्द चढ़ाने में इतनी नहीं थी जितनी किताबों के भीतर लिखी बातों को जानने में जितनी भी किताबें उसके पास आयीं उसने उन सबको पढ़ .. डाला । मगर उसकी सब से ज्यादा दिलचस्पी विज्ञान की पुस्तकों में थी । फैरेडे का मालिक एक दयालु व्यक्ति था और उसने फैरेडे के पढ़ने में कभी बाधा नहीं डाली । एक दिन एक ग्राहक आया और उसने फैरेडे को विज्ञान संबंधी एक भाषण - माला के टिकट दिये । ये भाषण लंदन की रायल सोसाइटी के एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक हम्फ्री डेवी द्वारा दिये जानेवाले थे । फॅरेडे ने इन भाषणों को बड़ी दिलचस्पी से सुना और जो कुछ सुना उसे बड़ी सावधानी से नोट कर लिया । कुछ समय बाद उसने उन्हीं कागजों पर जिल्द चढ़ाकर डेवी को भेजा और उनसे प्रार्थना की कि वह उसे अपनी प्रयोगशाला में कोई काम दे दें । उसने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि उसे उनकी प्रयोगशाला में नौकरी करने का मौका मिला तो वह वहाँ कोई भी काम करने के लिए तैयार है । डेवी ने फॅरेडे को बुलवाया । उसे बहुत ही इच्छुक देखकर डेवी ने उसे अपनी प्रयोगशाला में सफाई करने तथा शीशियों को धोने का काम दे दिया । प्रयोगशाला में जो भी प्रयोग होते थे उनमें फैरेडे बहुत दिलचस्पी लेता था । जैसे - जैसे उसे कुछ जानकारी होती गयी वैसे ही वैसे वह स्वयं भी कुछ प्रयोग करने लगा । शीघ्र ही उसने कमाल की प्रगति कर ली । उसका काम वैज्ञानिकों की नजर में आने लगा । आगे चलकर वह एक विख्यात वैज्ञानिक और रायल सोसाइटी का सदस्य बना । कहा जाता है कि एक बार सर हम्फ्री डेवी से पूछा गया कि उनके जीवन की सब से महान् खोज कौन - सी है । उन्होंने उत्तर दिया , " फॅरेडे " । फैरेडे ने ईस्टेंड की उस खोज की चर्चा सुनी जिसमें देखा गया था कि विद्युत धारा जिस तार में से होकर गुजरती है उसमें चुम्बक प्रभाव पैदा ह जाता है । उसके मन में प्रश्न उठा कि जब चुम्बक के न होने पर विद्युत धारा चुम्बक बना सकती है तब क्या इसका उल्टा नहीं हो सकता ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि चुम्बन विद्युत धारा बना सके ? उसने इसी विचार को लेकर काम करना शुरू कर दिया । जिस सिद्धांत पर वह काम कर रहा था उसे समझना कठिन नहीं है । कल्पना कीजिये कि एक गत्ते को एक सिलिंडर के रूप में मोड़ लिया गया है और कुछ तार उसके ऊपर लपेट दिया गया है । इस तार के दो सिरों को गैल्वनोमीटर नामक यंत्र से जोड़ दिया गया -- यह यंत्र विद्युत धारा को मापता है । एक छड़ चुम्बक को सिलिंडर के भीतर रख दिया गया । फॅरेडे को यह देख कर निराशा हुई कि गैल्वनोमीटर नहीं चला । एक दिन खीज कर उसने चुम्बक को निकाल फेंकने के लिए उसे बाहर खींच लिया । चुम्बक का निकलना था कि सुई सहसा धूम गयी । फैरेडे ने देखा कि विद्युत धारा तभी बनती थी जब चुम्बक अंदर - बाहर आता - जाता था न कि जब वह स्थिर अवस्था में होता था । चुम्बक जितनी तेजी से चलता था विद्युत धारा भी उतनी ही तीव्र होती थी । कुंडली ( कायल ) के घुमावों की संख्या बढ़ने से विद्युत धारा की ताकत भी बढ़ती गयी । इन अनुभवों के आधार पर फैरेडे ने पहला डायनामो बनाया । छड़ - चुम्बक को आगे - पीछे चलाने की बजाय उसने तार की एक कुंडली को नाल चुम्बक के दो ध्रुवों के बीच में रखकर कुंडली को घूमने दिया । तेज गति से गिरते हुए पानी से उसने ' पर्शियन ह्वील ' रहस्यमयी चर्खी को चलाया। यह चर्खी घूमती हुई कुंडली साथ जोड़ दी गयी थी ताकि उसके भीतर विजली बन सके । कुंडली को आर्मेचर कहते हैं । डायनामो के आर्मेचर को भाप या गॅस - इंजन या जल द्वारा घुमाया जाता है । जल शक्ति से बिजली बनाने की लागत सब से कम होती है । नियागरा के विशाल जल - प्रपातों को डायनामो से जुड़े टर्बाइनों को चलाने में इस्तेमाल किया जाता है । टाटा जलविद्युत योजना में वर्षा के जल को ऊँचे स्थान पर बने विशाल सागरों में जमा किया जाता है और फिर वहाँ से इस जल को पाइपों में से बहाकर टर्बाइन को चलाया जाता है । दोनों ही तरीकों से पानी टर्बाइन की पत्तियों पर गिर कर उसे घुमाता है । इस तरह बनायी गयी बिजली बैटरियों से प्राप्त होनेवाली बिजली से कहीं ज्यादा सस्ती थी , और इसी से विद्युत शक्ति को बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर सकना संभव हो सका । शक्ति के साधन के रूप में भाप की अपेक्षा बिजली से अनेक लाभ हैं । वस , जब जरूरत हो बटन दबा दीजिए और जब ज़रूरत नहीं तो बटन उठा दीजिए । धुआँ और विषैली गैसों को पैदा करनेवाले कोयले या तेल जलाकर शक्ति प्राप्त करने के तरीके की अपेक्षा बिजली का उत्पादन अधिक जल्दी और सफाई से होता है । साथ ही बिजली इस्तेमाल करने पर न राख का झंझट और न जहरीली गैस का खतरा । में साथ ही विद्युत ऊर्जा में यह भी सुविधा है कि इसे तारों की मदद से बहुत दूर - दूर तक ले जाया जा सकता है । इसमें शुरू की लागत तो जरूर ' ज्यादा होती है , मगर बाद में इसे चलाते रहने का खर्चा कम आता है । और आगे बिना किसी और मुसीबत के बिजली उन तारों में से होकर बहती रहती है । डायनामो का उल्टा विद्युत मोटर होता है । डायनामो में बिजली पैदा करने के लिए कुंडली घुमायी जाती है , जबकि विद्युत मोटर में स्वयं बिजली से कुंडली घुमायी जाती है । पंखों , पंपों , ट्रामों , बिजली की ट्रेनों और तमाम तरह की मशीनों को चलाने में विद्युत मोटर की ज़रूरत होती है । विद्युत मोटर को उसी तरह बनाया जाता है जैसे कि डायनामो को , और उसमें जरूरी हिस्से भी डायनामो के जैसे होते हैं । 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ